सामग्री पर जाएँ

बाल विकास

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
अन्वेषण (एक्सप्लोरिंग)

बाल विकास (या बच्चे का विकास), मनुष्य के जन्म से लेकर किशोरावस्था के अंत तक उनमें होने वाले जैविक और बौद्धिक परिवर्तनों को कहते हैं, जब वे धीरे-धीरे निर्भरता से और अधिक स्वायत्तता की ओर बढ़ते हैं। चूंकि ये विकासात्मक परिवर्तन काफी हद तक जन्म से पहले के जीवन के दौरान आनुवंशिक कारकों और घटनाओं से प्रभावित हो सकते हैं इसलिए आनुवंशिकी और जन्म पूर्व विकास को आम तौर पर बच्चे के विकास के अध्ययन के हिस्से के रूप में शामिल किया जाता है।

संबंधित शब्दों में जीवनकाल के दौरान होने वाले विकास को सन्दर्भित करने वाला विकासात्मक मनोविज्ञान और बच्चे की देखभाल से संबंधित चिकित्सा की शाखा बालरोगविज्ञान (पीडीऐट्रिक्स) शामिल हैं। विकासात्मक परिवर्तन, परिपक्वता के नाम से जानी जाने वाली आनुवंशिक रूप से नियंत्रित प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप या पर्यावरणीय कारकों और शिक्षण के परिणामस्वरूप हो सकता है लेकिन आम तौर पर ज्यादातर परिवर्तनों में दोनों के बीच का पारस्परिक संबंध शामिल होता है।

बच्चे के विकास की अवधि के बारे में तरह-तरह की परिभाषाएँ दी जाती हैं क्योंकि प्रत्येक अवधि के शुरू और अंत के बारे में निरंतर व्यक्तिगत मतभेद रहा है।

बाल विकास में विकासात्मक अवधियों की रूपरेखा.

कुछ आयु-संबंधी विकास अवधियों और निर्दिष्ट अंतरालों के उदाहरण इस प्रकार हैं: नवजात (उम्र 0 से 1 महीना); शिशु (उम्र 1 महीना से 1 वर्ष); नन्हा बच्चा (उम्र 1 से 3 वर्ष); प्रीस्कूली बच्चा (उम्र 4 से 6 वर्ष); स्कूली बच्चा (उम्र 6 से 13 वर्ष); किशोर-किशोरी (उम्र 13 से 20 वर्ष).[1] हालाँकि, ज़ीरो टू थ्री और वर्ल्ड एसोसिएशन फॉर इन्फैन्ट मेंटल हेल्थ जैसे संगठन शिशु शब्द का इस्तेमाल एक व्यापक श्रेणी के रूप में करते हैं जिसमें जन्म से तीन वर्ष तक की उम्र के बच्चे शामिल होते हैं; यह एक तार्किक निर्णय है क्योंकि शिशु शब्द की लैटिन व्युत्पत्ति उन बच्चों को सन्दर्भित करती है जो बोल नहीं पाते हैं।

बच्चों के इष्टतम विकास को समाज के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है और इसलिए बच्चों के सामाजिक, संज्ञानात्मक, भावनात्मक और शैक्षिक विकास को समझना जरूरी है। इस क्षेत्र में बढ़ते शोध और रुचि के परिणामस्वरूप नए सिद्धांतों और रणनीतियों का निर्माण हुआ है और इसके साथ ही साथ स्कूल सिस्टम के अंदर बच्चे के विकास को बढ़ावा देने वाले अभ्यास को विशेष महत्व भी दिया जाने लगा है। इसके अलावा कुछ सिद्धांत बच्चे के विकास की रचना करने वाली अवस्थाओं के एक अनुक्रम का वर्णन करने की भी चेष्टा करते हैं।

बालविकास के विभिन्न चरण

[संपादित करें]

रूसो ने बालकों की तीन अवस्थाओं की कल्पना की थी : शैशवावस्था, जो एक 01 से 06 तक रहती है, बाल्यावस्था जो 06 वर्ष से 12 वर्ष तक रहती है और किशोरावस्था जो 12 वर्ष से 18 वर्ष तक रहती है। आधुनिक मनोविश्लेषण विज्ञान के विशेषज्ञों ने रूसों की उक्त कल्पना का समर्थन बालक की कामवासना के विकास के आधार पर किया है। मनोविश्लेषण वैज्ञानिक बालक के मानसिक विकास में उसकी ज्ञानात्मक शक्तियों की प्रधानता न मानकर भावों की ही प्रधानता मानते हैं। मनुष्य के भावों के विकास के साथ ही उसकी अन्य मानसिक शक्तियों का विकास होता है। भाव वासना का सहगामी तत्व है। मनुष्य की मूल अथवा मुख्य वासना कामवासना है। अतएव जैसे जैसे उसका विकास होता है वैसे वैसे बालक का मानसिक विकास होता है।

मनोविश्लेषकों के कथनानुसार बालक का वासनात्मक विकास पांच वर्ष की अवस्था में ही हो जाता है। इसके बाद उसकी काम वासना अंतर्हित हो जाती है। वह तेरह वर्ष में फिर से जाग्रत होती है और इस बार जाग्रत होकर सदा बढती ही रहती है। इसके कारण बालक का किशोर जीवन बड़े महत्व का होता है। इसके पूर्व के जीवन में बालक का भावात्मक विकास रुक जाता है, परंतु उसका शारीरिक और बौद्धिक विकास जारी रहता है। किशोरावस्था में बालक का सभी प्रकार का विकास पूर्णरूपेण होता है।

उपर्युक्त बालमनोविकास की कल्पना एकांगी दिखाई देती है। अतएव बालमनोविज्ञान में विशेष रुचि रखने वाले मनोवैज्ञानिकों ने बालकों का सीधा निरीक्षण करके और उनके व्यवहारों के विषय में प्रयोग करके, जो निष्कर्ष निकाले वे अधिक महत्व के हैं। उन्होंने अपने दत्त निम्नलिखित सात विभागों में रखना अधिक उचित समझा है।

बालविकास के अध्ययन के लिए बालजीवन निम्नलिखित सात विभागों में विभक्त कर लिया जाता है :

(1) गर्भवासी,

(2) नवजात शिशु,

(3) एक वर्षीय शिशु,

(4) डगमगाकर चलनेवाला,

(5) पाठशालारोही,

(6) कैशोरोन्मुख तथा

(7) किशोर।

गर्भवासी बालक

[संपादित करें]

सभी प्राणियों का शारीरिक विकास उनकी गर्भावस्था से ही होता है। इस विकास में दो प्रमुख बातें काम करती हैं, एक प्राकृतिक परिपक्वता और दूसरी सीखने की सहज वृत्ति। अंतर केवल इतना ही है कि जहाँ दूसरे प्राणियों के जीवनविकास में प्राकृतिक परिपक्वता का अधिक महत्व रहता है, वहाँ बालक के विकास में सीखने की प्रधानता रहती है। मनोवैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध हो गया है कि जब बालक माँ के गर्भ में दो महीने का रहता है तभी से सीखने लगता है। पर उसके सीखने की जानकारी इस समय करना कठिन होता है।

गर्भावस्था में बालक के सीखने की क्रिया की जानकारी के लिए मनोवैज्ञानिकों ने विशेष प्रकार के यंत्रों का आविष्कार किया है। उसके क्रियाकलापों को जानने के लिए एक्स किरण का उपयोग किया जाता है। अभिमन्यु ने चक्रव्यूह तोड़ने की क्रिया जब वह गर्भ में था, तभी सीख ली थी। वह चक्रव्यूह को वहीं तक तोड़ सका जहाँ तक उसने गर्भ में तोड़ना सीखा था। जिस बालक की माँ को गर्भावस्था में सदा भयभीत रखा जाता है, वह बालक डरपोक होता है। संसार के लड़ाकू लोग ऐसी माताओं की संतान थे जिन्हें गर्भावस्था में युद्ध का जीवन व्यतीत करना पड़ा था। नेपोलियन और शिवा जी की माताओं का जीवन ऐसा ही था। इसी तरह रेलवे क्वार्टर में रहनेवाले कर्मचारियों के बच्चे गर्भस्थ अवस्था से ही रेल की गड़गड़ाहट, सीटी आदि सुनने के आदी हो जाते हैं।

नवजात शिशु

[संपादित करें]

नवजात शिशु जन्म लेते ही रोता है। यह शुभ सूचक है। यदि बच्चा अस्वस्थ है, तो उसके मुँह से रोने की आवाज नहीं निकलती। पैदा होने के कुछ ही घंटों बाद उसे भूख लगती है। यदि इस बच्चे के मुँह में माँ का स्तन दे दिया जाए, तो वह दूध खींचने लगता है। यदि बच्चे को दो तीन दिन तक माँ के स्तन से दूध न पिलाया जाए, तो वह माँ के स्तन से दूध खींचना ही भूल जाता है। माँ का दूध भी स्तन को बालक के मुंह में डाले बिना नहीं निकलता।

नवजात शिशु को दु:ख सुख की अनुभूति दो तीन वर्ष के बालक जैसी नहीं होती। नवजात शिशु एक साल तक काफी रोता है, परंतु उसकी आँख से आँसू नहीं निकलता। नवजात शिशु की बहुत थोड़ी संवेदनाएँ होती हैं। जोर की आवाज उसे चौंकाती है और तेज प्रकाश भी संवेदना उत्पन्न करता है, परंतु रंग के विषय में उसकी संवेदना स्पष्ट नहीं होती। नवजात शिशु की भावात्मक अनुभूतियाँ भी सीमित होती हैं। वह मुस्कुराता तो है, परंतु यह नहीं कहा जा सकता कि आनंद की अनुभूतियों के कारण वह मुस्कराता है। वह 20 घंटे तक सोता रहता है। उसका अधिक सोना ही स्वास्थ्यवर्धक है। नवजात शिशु अधिकतर सहज क्रियाएँ ही करता है।

एक साल का बालक

[संपादित करें]

एक साल का बालक अपने और बाहरी वातावरण में भेद करना सीख लेता है। वह अपना हाथ पैर और सिर आवश्यकता के अनुसार इधर उधर चलाता है। वह खड़े होने की चेष्टा करता है और यदि कोई हाथ पकड़कर उसे चलाए, तो वह चलने की भी चेष्टा करता है। बालक के अंदर हर एक पदार्थ को छूने की, उठाने की एवं मुँह तक ले जाने की बाध्य प्रेरणा रहती है। वह स्वावलंबी बनने की चेष्टा करता है। वह स्वार्थी रहता है। यदि कोई चीज उसे दी जाए, तो वह प्रसन्नता प्रदर्शित करता है और यदि उसे छीन लिया जाए तो वह रोने लगता है। एक और दो वर्ष के बीच बच्चा भाषा का ज्ञान प्राप्त करना प्रारंभ कर देता है। वह एक दो शब्द भी सीख जाता है।

दो वर्षीय बालक

[संपादित करें]

दो वर्ष का बालक अपने वातावरण में सदा खोज करता रहता है। वह इधर उधर दौड़ता, कूदता-फाँदता, गिरता रहता है। वह सीढ़ियों पर चढ़ने की चेष्टा करता है। सीढ़ियाँ चढ़ लेता है, लेकिन उतरने में लुढ़क जाता है। वह सब कप से दूध पी लेता है और चम्मच को काम में ला सकता है। जब उसे कपड़े पहनाए जाते हैं, तब वह कपड़े पहनाने में बड़ों की मदद करता है। तस्वीर देखकर वह वस्तुओं का नाम बताता है और दो चार शब्द की कविता कह लेता है। दो से चार वर्ष की अवस्था में बच्चे का शब्दकोश 300 शब्दों का हो जाता है। तीन वर्ष तक का बालक अपने आपके बारे में संज्ञा शब्द से ही बोध करता है, सर्वनाम से नहीं। वह अपना नाम जानता है। वह यह भी बता सकता है कि वह लड़का है या लड़की। शब्दों का उच्चारण बड़ा ही फूहर रहता है। इन बच्चों की शब्दावली विलक्षण प्रकार की होती है। जिन शब्दों का वे उच्चारण नहीं कर सकते, उनके बदले में वे दूसरे शब्द काम में ले आते हैं। पानी के लिए मम्मा कहते हैं, चिड़िया को चू चू और कुत्ते को तू तू कहते हैं। उन्हें अपने भावों को सँभालने की शक्ति नहीं रहती। वे सभी चीजें अपने ही लिए चाहते हैं। यदि कोई व्यक्ति उनसे कोई वस्तु छीन ले, तो वे बहुत ही क्रुद्ध हो जाते हैं। दो से पाँच वर्ष का शिशु सभी बातें सीखता है। वह 10 घंटे प्रति दिन चलता रहता है। ऐसा बालक सामाजिकता प्रदर्शित नहीं करता और बच्चों में रुचि न दिखाकर बड़ों में रुचि दिखाता है। बच्चों के साथ खेलने में वह सहयोग नहीं दिखाता, वरन् उनका अनुकरण मात्र करता है। वह व्यक्तियों में रुचि न रखकर वस्तुओं में रुचि रखता है और अच्छी लगनेवाली वस्तु दूसरों से छीन लेता है।

इस उम्र के बच्चों की भावात्मक अनुभूतियाँ पर्याप्त रहती हैं। वह दु:ख पाने पर तेजी से रोता है और कभी कभी बड़ा ही तूफान मचाता है, जैसे पैर पटकना और सिर पीटना। उसमें दूसरों के भावों को समझने की शक्ति नहीं रहती और न उनके प्रति वह सहानुभूति ही दिखाता हैं। यदि वह किसी बच्चे को रोते हुए देखता है, तो वह परेशानी की मुद्रा में उसे देखता रहता है, स्वयं नहीं रोने लगता। शिशु के भय बहुत थोड़े होते हैं। तीक्ष्ण आवाज तथाा नीचे गिरने से वह डरता है। इसी प्रकार आगंतुकों से और नई चीजों से वह डरता है, परंतु वह बहुत से डरावने जानवरों से नहीं डरता। यदि उसे सर्प से डरवाया न जाए, तो वह उसे पकड़ने दौड़ेगा। शिशु को अनेक डर कुशिक्षा के द्वारा प्राप्त होते हैं।

छह वर्ष का बालक

[संपादित करें]

जन्म से लेकर पाँच वर्ष की अवस्था शैशव अवस्था कही जाती है। छह वर्ष की अवस्था से ही बाल्यकाल माना गया है। बाल्यकाल स्कूल जाने की अवस्था है। यह काल 10, 11 वर्ष तक माना गया है। बाल्यकाल में बालक अपने शरीर की परवाह ठीक प्रकार से कर सकता है और दूसरों के साथ ठीक व्यवहार कर लेता है। वह चलते चलते अचानक गिर नहीं पड़ता। ऊँची जगहों पर चढ़ जाता है और वहाँ से उतर आता है। इस काल में बालकों को कूदना, फाँदना, दौड़ना, सभी बातों में मजा आता है। जहाँ शिशु अपनी उँगुलियों का ठीक से उपयोग नहीं कर पाता, वहाँ बालक उनसे बहुत कुछ काम ले सकता है। वह अपने कपड़े, जूते, स्वयं पहन सकता है। बालों में कंघी कर सकता है और स्वयं स्नान कर सकता है। इन सब कामों को वह बड़े लोगों से सदा सीखता रहता है।

पाँच वर्ष के शिशु में खेलने की प्रवृत्ति होती है। वह अनेक प्रकार की वस्तुएँ खेल के लिए चाहता है। ऐसे बच्चों के लिए मैकिनो और प्लैस्टिसीन अथवा गीली मिट्टी बहुत उपयोगी होती है। वह अनेक प्रकार की चित्रकारी करता है। अब वह जो चित्र बनाता है, वे प्राय: सार्थक होते हैं।

छह वर्ष की उम्र तक बच्चे का बौद्धिक विकास काफी हो जाता है। वह गिनती का अर्थ समझने लगता है। 20 तक गिनती सरलता से गिन लेता है और 20 पदार्थों को गिन भी लेता है। पाँच वर्ष की अवस्था तक बच्चे को पहाड़े का अर्थ नहीं आता। जो भी उसे रटाया जाए वह रट लेता है। इस समय बच्चा पुस्तक पढ़ने की चेष्टा करता है, परंतु उसका बहुत कुछ पढ़ना सार्थक नहीं होता। उसका शब्दकोश 2,500 शब्दों का हो जाता है। उसकी भाषा में केवल सरल वाक्य नहीं रहते, वरन् मिश्रित और जटिल वाक्य भी रहते हैं। भाषा के विकास के साथ साथ उसके विचारों में भी पर्याप्त विकास होता है। इस उम्र का बालक कालबोधक शब्दों को ठीक से काम में लाता है। उसका कार्य कारण के आधार पर सोचना अभी विकसित नहीं होता।

इस उम्र में बालक की भावनाएँ काफी विकसित हो जाती हैं। वह प्रसन्नता, क्रोध, भय, निराशा आदि भावों को स्पष्ट रूप से और प्राय: ठीक ढंग से व्यक्त करता है। यदि कोई उसे चिढ़ा दे, या कोई उसकी चीज छीन ले, तो वह उसे मारने की चेष्टा करता है। बालक के इस काल के भय उसके जीवन में बड़ा महत्व रखते हैं। यदि किसी बालक का पिता क्रोधी हुआ और वह बात बात में बच्चे को डाँटता रहा, तो बालक सदा के लिए डरपोक बन जाता है। और यदि बालक में कोई प्रतिभा हुई, तो उसके मन में पिता के प्रति और भी मानसिक ग्रंथि बन जाती है।

बाल्यकाल आदतों के डालने का काल है। पाँच और दस वर्ष के बीच बालक में अनेक प्रकार की भली और बुरी आदतें पड़ जाती हैं। अविभावकों पर ही इन आदतों के डालने की जिम्मेदारी रहती है। जैसा वे उसे बनाते हैं, वैसा वह बन जाता है। यदि किसी बालक को भूत प्रेत की कहानियाँ इस समय सुनाई जाएँ, तो वह जीवन भर के लिए डरपोक बन जाता है।

बाल्यकाल में बच्चे को भयभीत करनेवाली वस्तुओं की संख्या बढ़ जाती है। अब वह अचानक तेज आवाज सुनकर तथा ऊँचे स्थानों पर जाने से तो नहीं डरता, परंतु अंधकार में जाने से तथा अकेले रहने से, बड़े बड़े जानवरों, से तथा नवागंतुकों से डरने लगता है। इसके कल्पित डर बहुत से हो जाते हैं। वह भूत प्रेत से तो डरता ही है। यह डाकुओं और चोरों के नाम से भी डरता है।

बाल्यकाल में बच्चे को आत्मप्रकाशन की उतनी स्वतंत्रता नहीं रहती जितनी उसे पहले रहती है। उसे स्कूल जाना पड़ता है और मास्टर की निगरानी में रहना पड़ता है। वहाँ उसे शीलवान बनना पड़ता है। यह शील दिखाऊ होता है। इसका बदला वह घर पर चुकाता है। स्कूल से लौटकर वह माँ के सामने बहुत सी शैतानी करता है।

छह से दस वर्ष के बीच के बालक के सामाजिक भाव काफी विकसित हो जाते हैं। वह लड़के और लड़की दोनों से मिलता जुलता है, परंतु उसके अधिक मित्र अपने ही समानलिंग के बालकों में होते हैं। लड़के लड़कियों को प्राय: मूर्ख समझते हैं और लड़कियाँ लड़को का उद्दंड तथा फूहड़ समझती हैं। लड़के और लड़कियों के खेलों में अब भिन्नता आ जाती है। लड़कियाँ गुड़ियों, चूल्हे चक्की आदि से खेलती हैं और लड़के नाव, गेंद, तीर कमान, पैरगाड़ी आदि से खेलते हैं।

इस काल में बालक के चुने हुए मित्र रहते हैं। वह इन्हीं के पास रहना अधिक पसंद करता है। यदि उन्हें काई मारे पीटे तो वह उन्हें बचाने की कोशिश करता है। वह उन्हें अपने खाने पीने की चीजें भी देता है, परंतु यह मित्रता सदा बदलती रहती है। इस प्रकार बालक का अनेक लोगों से प्यार करने का अभ्यास हो जाता हैं। उसके सामाजिक भावों का प्रसार भी इसी मित्रता के भावों के प्रसार के साथ होता रहता हैं।

छह से दस वर्ष के बालक में भले और बुरे का विवेक उत्पन्न हो जाता है। उसमें साधारणत: आत्मनियंत्रण की शक्ति का उदय हो जाता है। बड़ों के द्वारा प्रोत्साहित होने पर बालक में आत्म नियंत्रण की शक्ति बढ़ती जाती है। यही समय है जब कि बालक में नैतिक आचरण का बीजारोपण होता है। अत्यंत लाड़ में रहनेवाले बालक की नैतिक बुद्धि सुप्त बनी रहती हैं, अथवा वह प्रारंभ से ही विकृत हो जाती है। इसी प्रकार अधिक ताड़ना में रखे गए बालक में झूठा शिष्टाचार आ जाता है। उसमें भले बुरे को पहचानने की क्षमता ही नहीं रहती। आदतों के वशीभूत होकर ऐसे बालक भला आचरण करना सीख लेते हैं पर इन आदतों का आधार भय रहता है।

किशोरपूर्वावस्था

[संपादित करें]

यह अवस्था 10 से 13 वर्ष की अवस्था है। आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार यह अवस्था भावों के अंतर्हित होने की अवस्था कहलाती है। इस काल में बालक अपनी शारीरिक और बौद्धिक प्रगति तो करता है, परंतु भावों की दृष्टि से उसका अधिक विकास नहीं होता। इस अवस्था में लड़कों की अपेक्षा लड़कियाँ अधिक तीव्रता से बढ़ती हैं। उनका भाषाज्ञान अधिक हो जाता है। उनकी शारीरिक वृद्धि भी लड़कों की अपेक्षा अधिक होती है। अब लड़के और लड़कियों का भेद सभी बातों में स्पष्ट होने लगता है।

बालक इस काल में दूसरों के प्रति पहले जैसी सहानुभूति नहीं दिखाता। वह दूसरों को चिढ़ाने तथा तंग करने में आनंद का अनुभव करता है। उसे अब साहस के काम की कहानियाँ अधिक पसंद आती हैं। वह कल्पना में विचरण करना आरंभ कर देता है।

इस समय बच्चे गिरोह में रहना पसंद करते हैं। लड़के और लड़कियों के खेल भिन्न भिन्न हो जाते हैं और उनके आचरण के नियमों में भी भेद हो जाता है। इनके खेलों में शारीरिक क्रियाएँ, अधिक होती हैं। लड़के बाइसिकिल चलाना, बढ़ईगिरी करना, कूदना, उछलना और तैरना सीखना चाहते हैं और लड़कियाँ रस्सी कूदना, नाचना, गाना, हारमोनियम बजाना और रेडियो सुनना पसंद करती हैं।

इस काल में बच्चों की नैतिक बुद्धि जाग्रत नहीं रहती। वे बहुत से अनुचित व्यवहार भी कर डालते हैं। कुछ बालकों में चोरी की आदतें लग जाती हैं, परंतु अभिभावकों को इससे डरना नहीं चाहिए। बालकों की नैतिक धारणाओं को ठीक करने के लिए उन्हें उचित वातावरण उपस्थित करना चाहिए। इस काल में बालक के सबसे महत्व के शिक्षक उसके माता पिता नहीं, वरन् समवयस्क बालक रहते हैं। वह गिरोह में रहना पसंद करता है। उसे गिरोह से अलग तो करना नहीं चाहिए, पर गिरोह के बालकों के बारे में उसके अभिभावकों को जानकारी रखनी चाहिए। मनुष्य की नैतिकता का विकास उसकी सामाजिकता के साथ साथ होता है और उसके सामाजिक भाव ही उसके कामों में लगाते हैं।

इस काल में बालक का पर्याप्त बौद्धिक विकास होता है। उसका शब्दकोश काफी बढ़ जाता है। इसमें आठ दस हजार शब्द आ जाते हैं। उसके वाक्य भी अब अधिक लंबे होते हैं। इनमें छह शब्द तक रहते हैं। इस काल में बालक बहादुरी के कारनामों वाली, जादू की और दूसरे देशों के बच्चों के वृत्तांतवाली पुस्तकें पढ़ना चाहता है। वह जानना चाहता है कि दूसरे देश के लोग कैसे रहते हैं और क्या करते हैं। अतएव इस काल में बच्चों को ऐतिहासिक तथा भौगोलिक कहानियाँ सुनाना, उनके मानसिक विकास के लिए उपयुक्त होता है। इस समय बच्चे लिखना सीखने लगते हैं, परंतु उनके लिखने में गलतियाँ बहुत होती हैं। उनके अक्षर सुंदर नहीं होते और विराम चिह्र आदि का लिखते समय उन्हें ज्ञान नहीं रहता। लिखने में सुधार करना इस समय नितांत आवश्यक है। जो पाठशालाएँ इस काल में बालकों की लेखनशैली पर ध्यान नहीं देतीं वे जीवन भर के लिए बालक को इस दिशा से निकम्मा बना देती हैं। लेखनशैली और अक्षरों को सुंदर बनाने की बालक में रुचि इसी काल में पैदा की जा सकती है। मनुष्य की लेखनशैली का उसके चरित्र पर गहरा प्रभाव पड़ता है। लेखन की सावाधानी चरित्र की सावधानी बन जाती है। अतएव इस काल में बालकों की लेखनशैली पर ध्यान रखना नितांत आवश्यक है।

किशोरावस्था

[संपादित करें]

मुख्य लेख किशोरावस्था

किशोरावस्था मनुष्य के जीवन का बसंतकाल माना गया है। यह काल बारह से उन्नीस वर्ष तक रहता है, परंतु किसी किसी व्यक्ति में यह बाईस वर्ष तक चला जाता है। यह काल भी सभी प्रकार की मानसिक शक्तियों के विकास का समय है। भावों के विकास के साथ साथ बालक की कल्पना का विकास होता है। उसमें सभी प्रकार के सौंदर्य की रुचि उत्पन्न होती है और बालक इसी समय नए नए और ऊँचे ऊँचे आदर्शों को अपनाता है। बालक भविष्य में जो कुछ होता है, उसकी पूरी रूपरेखा उसकी किशोरावस्था में बन जाती है। जिस बालक ने धन कमाने का स्वप्न देखा, वह अपने जीवन में धन कमाने में लगता है। इसी प्रकार जिस बालक के मन में कविता और कला के प्रति लगन हो जाती है, वह इन्हीं में महानता प्राप्त करने की चेष्टा करता और इनमें सफलता प्राप्त करना ही वह जीवन की सफलता मानता है। जो बालक किशोरावस्था में समाज सुधारक और नेतागिरी के स्वप्न देखते हैं, वे आगे चलकर इन बातों में आगे बढ़ते है।

पश्चिम में किशोर अवस्था का विशेष अध्ययन कई मनोवैज्ञानिकों ने किया है। किशोर अवस्था काम भावना के विकास की अवस्था है। कामवासना के कारण ही बालक अपने में नवशक्ति का अनुभव करता है। वह सौंदर्य का उपासक तथा महानता का पुजारी बनता है। उसी से उसे बहादुरी के काम करने की प्रेरणा मिलती है।

सिद्धान्त

[संपादित करें]

पारिस्थितिकीय प्रणाली सिद्धांत

[संपादित करें]

"प्रासंगिक विकास" या "मानव पारिस्थितिकी" सिद्धांत के नाम से भी जाने जानेवाले और मूल रूप से यूरी ब्रोनफेनब्रेनर द्वारा सूत्रबद्ध cha-cha DC bg Vvhbcjjपारिस्थितिकीय प्रणाली सिद्धांत, प्रणालियों के भीतर और प्रणालियों के दरम्यान द्विदिशात्मक प्रभावों के साथ चार प्रकार की स्थिर पर्यावरणीय प्रणालियों को निर्दिष्ट करता है। ये चार प्रणालियाँ इस प्रकार हैं: माइक्रोसिस्टम, मेसोसिस्टम, एक्सोसिस्टम और मैक्रोसिस्टम. प्रत्येक प्रणाली में शक्तिशाली ढंग से विकास को आकार देने की क्षमता रखने वाली भूमिकाएं, मानदंड और नियम शामिल हैं। 1979 में इसके प्रकाशन के बाद से ब्रोनफेनब्रेनर के इस सिद्धांत के प्रमुख कथन द इकोलॉजी ऑफ ह्यूमन डेवलपमेंट (मानव विकास की पारिस्थितिकी)[2] का मनोवैज्ञानिकों और अन्य लोगों द्वारा मानव जाति और उनके पर्यावरणों का अध्ययन करने के तरीके पर काफी व्यापक प्रभाव पड़ा है। विकास की इस प्रभावशाली अवधारणा के परिणामस्वरूप परिवार से आर्थिक और राजनीतिक संरचनाओं तक के इन पर्यावरणों को बचपन से वयस्कता तक के जीवनकाल के हिस्से के रूप में देखा जाने लगा है।[3]

पियाजेट

[संपादित करें]

पियाजेट एक फ्रेंच भाषी स्विस विचारक थे जिनका मानना था कि बच्चे खेल प्रक्रिया के माध्यम से सक्रिय रूप से सीखते हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि बच्चे को सीखने में मदद करने में वयस्क की भूमिका बच्चे के लिए उपयुक्त सामग्री प्रदान करना था जिससे वह अंतर्क्रिया और निर्माण कर सके। वे सुकराती पूछताछ (सौक्रेटिक क्वेश्चनिंग) द्वारा बच्चों को उनकी गतिविधियों के विषय में सोचने के लिए प्रोत्साहित करते थे। वह बच्चों को उनके स्पष्टीकरण में विरोधाभासों को दिखाने की कोशिश करते थे। उन्होंने विकास के चरणों को भी विकसित किया। उनके दृष्टिकोण का पता इस बात से चल सकता है कि स्कूलों में पाठ्क्रम को अनुक्रमित किया जाता है और पूरे संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रीस्कूल सेंटरों के अध्यापन में उनके दृष्टिकोण को देखा जा सकता है।

पियाजेट चरण

[संपादित करें]

ज्ञानेन्द्रिय (सेंसरीमोटर): (जन्म से लेकर लगभग 2 साल की उम्र तक)
इस चरण के दौरान, बच्चा प्रेरक (मोटर) और परिवर्ती (रिफ्लेक्स) क्रियाओं के माध्यम से अपने और अपने पर्यावरण के बारे में सीखता है। विचार, इन्द्रियबोध और हरकत से उत्पन्न होता है। बच्चा यह सीखता है कि वह अपने पर्यावरण से अलग है और उसके पर्यावरण के पहलू अर्थात् उसके माता-पिता या पसंदीदा खिलौना उस वक्त भी मौजूद रहते हैं जब वे आपकी समझ से बाहर हों. इस चरण में बच्चे के शिक्षण को ज्ञानेन्द्रिय प्रणाली की तरफ मोड़ना चाहिए। आप हावभाव दिखाकर अर्थात् तेवर दिखाकर, एक कठोर या सुखदायक आवाज का इस्तेमाल करके व्यवहार को बदल सकते हैं; ये सभी उपयुक्त तकनीक हैं।

पूर्वपरिचालनात्मक (प्रीऑपरेशनल): (इसकी शुरुआत लगभग 3 से 7 साल की उम्र में होती है जब बच्चा बोलना शुरू करता है)
अपने भाषा संबंधी नए ज्ञान का इस्तेमाल करते हुए बच्चा वस्तुओं को दर्शाने के लिए संकेतों का इस्तेमाल करना शुरू करता है। इस चरण के आरम्भ में वह वस्तुओं का मानवीकरण भी करता है। वह अब बेहतर ढंग से उन चीजों और घटनाओं के बारे में सोचने में सक्षम हो जाता है जो तत्काल मौजूद नहीं हैं। वर्तमान के प्रति उन्मुख होने पर बच्चे को समय के बारे में अपना विचार बनाने में तकलीफ होती है। उनकी सोच पर कल्पना का असर रहता है और वह चीजों को उन्हीं रूपों में देखता है जिन रूपों में वह उन्हें देखना चाहता है और वह मान लेता है कि दूसरे लोग भी उन परिस्थितियों को उसी के नज़रिए से देखते हैं। वह जानकारी हासिल करता है और उसके बाद वह उस जानकारी को अपने विचारों के अनुरूप अपने मन में परिवर्तित कर लेता है। सिखाने-पढ़ाने के दौरान बच्चे की ज्वलंत कल्पनाओं और समय के प्रति उसकी अविकसित समझ को ध्यान में रखना आवश्यक है। तटस्थ शब्दों, शरीर की रूपरेखा और छू सकने लायक उपकरण का इस्तेमाल करने से बच्चे के सक्रिय शिक्षण में मदद मिलती है। इनका चिन्तन जीव वाद पर आधारित होता है, मतलब यह निर्जीव व सजीव सभी वस्तु/प्राणी को जीवित ही मानते है।

मूर्त संक्रियात्मक अवस्था' (कंक्रीट): (लगभग पहली कक्षा से लेकर आरंभिक किशोरावस्था तक)
इस चरण के दौरान, समायोजन क्षमता में वृद्धि होती है। बच्चों में अनमने भाव से सोचने और इन्द्रियों से पहचानने योग्य या दिखाई देने योग्य घटना के बारे में तर्कसंगत निर्णय करने की क्षमता का विकास होता है जिसे समझने के लिए अतीत में उसे शारीरिक दृष्टि का इस्तेमाल करना पड़ा था। इस बच्चे को सिखाने-पढ़ाने के दौरान उसे सवाल पूछने और चीजों या बातों को वापस आपको समझाने का मौका देने से उसे मानसिक दृष्टि से उस जानकारी का इस्तेमाल करने में आसानी होती है।

अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था': (formal operational stage)
यह चरण अनुभूति को उसका अंतिम रूप प्रदान करता है। इस व्यक्ति को तर्कसंगत निर्णय करने के लिए अब कभी पहचानने योग्य वस्तुओं की जरूरत नहीं पड़ती है। अपनी बात पर वह काल्पनिक और निगमनात्मक तर्क दे सकता है। किशोरी-किशोरियों को सिखाने-पढ़ाने का क्षेत्र काफी विस्तृत हो सकता है क्योंकि वे कई दृष्टिकोणों से कई संभावनाओं पर विचार करने में सक्षम होते हैं।

वाईगोटस्की

[संपादित करें]

वाईगोटस्की एक विचारक थे जिन्होंने पूर्व सोवियत संघ के पहले दशकों के दौरान काम किया था। उनका मानना था कि बच्चे व्यावहारिक अनुभव के माध्यम से सीखते हैं जैसे कि पियाजेट ने सुझाव दिया था। हालांकि, पियाजेट के विपरीत, उन्होंने दावा किया कि जब कोई बच्चा कोई नया काम सीखने की कगार पर होता है तब वयस्कों द्वारा समय पर और संवेदनशील हस्तक्षेप से बच्चों को नए कार्यों (जिन्हें समीपस्थ विकास का क्षेत्र नाम दिया गया) को सीखने में मदद मिल सकती है। इस तकनीक को "स्कैफोल्डिंग (मचान बनाना)" कहा जाता है क्योंकि यह नए ज्ञान के साथ बच्चों के पास पहले से मौजूद ज्ञान पर निर्मित होता है जिससे वयस्क बच्चे को सीखने में मदद मिल सकती है।[4] इसका एक उदाहरण तब मिल सकता है जब कोई माता या पिता किसी बच्ची को ताली बजाने या पैट-ए-केक कविता के लिए अपने हाथों को गोल-गोल घुमाने में तब तक "मदद" करते हैं जब तक वह खुद अपने हाथों को थपथपाना या ताली बजाना और गोल-गोल घुमाना सीख नहीं लेती है।[5][6]

वायगोटस्की का ध्यान पूरी तरह से बच्चे के विकास की पद्धति का निर्धारण करने में संस्कृति की भूमिका पर केंद्रित था।[4] उन्होंने तर्क दिया कि बच्चे के सांस्कृतिक विकास में हर कार्य दो बार प्रकट होता है: पहली बार सामाजिक स्तर पर और बाद में व्यक्तिगत स्तर पर; पहली बार लोगों के बीच (अंतरमनोवैज्ञानिक) और उसके बाद बच्चे के भीतर (अंतरामनोवैज्ञानिक). यह स्वैच्छिक ध्यान, तार्किक स्मृति और अवधारणा निर्माण में समान रूप से लागू होता है। सभी उच्च कार्यों की उत्पत्ति व्यक्तियों के बीच के वास्तविक संबंधों के रूप में होती है।[4]

वायगोटस्की ने महसूस किया कि विकास एक प्रक्रिया थी और उन्होंने बच्चे के विकास में संकट की अवधियों को देखा जिस दौरान बच्चे की मानसिक क्रियाशीलता में एक गुणात्मक परिवर्तन हुआ था।सन्दर्भ त्रुटि: अमान्य <ref> टैग; (संभवतः कई) अमान्य नाम

व्यवहार संबंधी सिद्धान्त

[संपादित करें]

जॉन बी. वाटसन का व्यवहारवाद सिद्धांत विकास के व्यावहारिक मॉडल की नींव का निर्माण करता है।[7] उन्होंने बच्चे के विकास पर बहुत कुछ लिखा और कई शोध किए (लिटिल अलबर्ट प्रयोग देखें). व्यवहार सिद्धांत की धारा के निर्माण में विलियम जेम्स की चेतना धारा दृष्टिकोण के संशोधन में वाटसन मददगार साबित हुए.[8] वाटसन ने दिखाई देने और मापने योग्य व्यवहार के आधार पर उद्देश्यपूर्ण शोध विधियों का आरम्भ करके बच्चे के मनोविज्ञान के लिए एक प्राकृतिक विज्ञान परिप्रेक्ष्य को लाने में भी मदद की। वाटसन के नेतृत्व के बाद बी. एफ. स्किनर ने आगे चलकर ऑपरेंट कंडीशनिंग और मौखिक व्यवहार को कवर करने के लिए इस मॉडल को विस्तारित किया।

अन्य सिद्धांत

[संपादित करें]

यौन चालित होने के नाते एक बुनियादी मानव प्रेरणा के अपने दृष्टिकोण के अनुसार सिगमंड फ्रायड ने शैशवावस्था से आगे मानव विकास का एक मनोयौन सिद्धांत विकसित किया और उसे पांच चरणों में विभाजित किया। प्रत्येक चरण शरीर के वासनोत्तेजक क्षेत्र या किसी विशेष क्षेत्र के भीतर कामेच्छा की संतुष्टि के आसपास केंद्रित था। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि मनुष्यों का जैसे-जैसे विकास होता है वैसे-वैसे वे अपने विकास के चरणों के माध्यम से अलग-अलग और विशिष्ट वस्तुओं पर स्थिर होते जाते हैं। प्रत्येक चरण में मतभिन्नता है जिसे बच्चे के विकास को सक्षम बनाने के लिए हल करना जरूरी है।[9]

विकास के विचार के लिए एक ढांचे के रूप में गत्यात्मक प्रणालियों के सिद्धांत का इस्तेमाल 1990 के दशक के आरम्भ में शुरू हुआ और वर्तमान सदी में इसका इस्तेमाल अभी भी जारी है।[10] गत्यात्मक प्रणाली सिद्धांत अरेखीय संबंधों (जैसे पहले और परवर्ती सामाजिक मुखरता के बीच) और एक चरण परिवर्तन के रूप में फिर से संगठित होने की एक प्रणाली की क्षमता पर जोर देता है जिसकी प्रकृति मंच की तरह होती है। विकासवादियों के लिए एक अन्य उपयोगी अवधारणा आकर्षणकर्ता की स्थिति है; यह अवस्था (जैसे शुरूआती या अनजानी चिंता) जाहिर तौर पर असंबंधित व्यवहारों के साथ-साथ संबंधित व्यवहारों का भी निर्धारण करने में मदद करती है। गत्यात्मक प्रणाली सिद्धांत को मोटर विकास के अध्ययन में बड़े पैमाने पर लागू किया जाता है; लगाव प्रणालियों के बारे में बाउल्बी के कुछ दृष्टिकोणों के साथ भी इस सिद्धांत का गहरा संबंध है। गत्यात्मक प्रणाली सिद्धांत का संबंध व्यवहार प्रक्रिया की अवधारणा से भी है[11] जो एक पारस्परिक बातचीत प्रक्रिया है जिसमें बच्चे और माता-पिता एक साथ एक दूसरे को प्रभावित करते हैं जिससे समय-समय पर दोनों में विकासात्मक परिवर्तन होता है।

कोर नॉलेज पर्सपेक्टिव (केन्द्रीय ज्ञान दृष्टिकोण) बच्चे के विकास में एक विकासमूलक सिद्धांत है जो यह प्रस्ताव देता है कि "शिशुओं के जीवन की शुरुआत सहज और विशेष प्रयोजन वाली ज्ञान प्रणालियों के साथ होती है जिसे सोच के कोर डोमेन (केन्द्रीय क्षेत्र) के रूप में सन्दर्भित किया जाता है".[12] सोच के पांच कोर डोमेन हैं जिनमें से प्रत्येक अस्तित्व रक्षा के लिए बहुत जरूरी है जो एक साथ आरंभिक अनुभूति के प्रमुख पहलुओं के विकास के लिए हमें तैयार करते हैं; वे हैं: शारीरिक, संख्यात्मक, भाषाई, मनोवैज्ञानिक और जैविक.

विकास में निरंतरता और अनिरंतरता

[संपादित करें]

हालाँकि विकासात्मक लक्ष्यों (माइलस्टोन्स) की पहचान करना शोधकर्ताओं और बच्चों की देखरेख करने वालों के लिए एक दिलचस्प काम है लेकिन फिर भी विकासात्मक परिवर्तन के कई पहलू सतत होते हैं और वे परिवर्तन के दिखाई देने योग्य माइलस्टोन्स को प्रदर्शित नहीं करते हैं।[13] सतत विकासात्मक परिवर्तनों, जैसे कद में वृद्धि, में वयस्क विशेषताओं की तरफ काफी क्रमिक और पूर्वानुमेय प्रगति शामिल होती है। हालाँकि जब विकासात्मक परिवर्तन असतत होता है तब शोधकर्ता न केवल विकास के माइलस्टोन्स की बल्कि अक्सर चरण कहे जाने वाले संबंधित आयु अवधियों की भी पहचान कर सकते हैं। एक चरण अक्सर एक ज्ञात कालानुक्रमिक आयु सीमा से जुड़ी हुई एक समयावधि है जिस दौरान कोई व्यवहार या शारीरिक विशेषता गुणात्मक रूप से अन्य चरणों से अलग होती है। जब किसी आयु अवधि को एक चरण के रूप में सन्दर्भित किया जाता है तो इस शब्द का मतलब केवल गुणात्मक अंतर नहीं होता है बल्कि इसका मतलब विकासात्मक घटनाओं का एक पूर्वानुमेय क्रम भी होता है जैसे कि प्रत्येक चरण से पहले और बाद में विशिष्ट व्यवाहारिक या शारीरिक गुणों के साथ जुड़ी अन्य विशिष्ट अवधियाँ होती हैं।

विकास के चरण एक साथ हो सकते हैं या विकास के अन्य विशिष्ट पहलुओं से जुड़े हो सकते हैं जैसे बोलना या चलना. यहाँ तक कि एक विशेष विकासात्मक क्षेत्र में भी किसी चरण में संक्रमण का मतलब यह नहीं हो सकता है कि पिछला चरण पूरी तरह से समाप्त हो गया है। उदाहरण के लिए, व्यक्तित्व के चरणों के बारे में एरिक्सन की चर्चा में यह सिद्धांतकार सुझाव देता है कि उन मुद्दों पर नए सिरे से काम करने में जीवन बीत जाता है जो मूलतः बचपन के चरण की विशेषताएँ थी।[14] इसी तरह, संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांतकार पियाजेट ने उन परिस्थितियों का वर्णन किया जिनमें बच्चे परिपक्व सोच-विचार कौशल के इस्तेमाल से एक प्रकार की समस्या का समाधान कर सकते हैं लेकिन वे कम परिचित समस्याओं के लिए इसे पूरा नहीं कर सकते हैं; इस घटना को उन्होंने क्षैतिज डिकैलेज नाम दिया। [15]

विकास की क्रियाविधि

[संपादित करें]
खेल के मैदान में खेलती हुई लड़की

हालाँकि विकासात्मक परिवर्तन कालानुक्रमिक आयु के साथ-साथ चलता है, विकास में स्वयं आयु का कोई योगदान नहीं होता है। विकासात्मक परिवर्तनों की बुनियादी क्रियाविधि या कारण, आनुवंशिक और पर्यावरणीय कारक होते हैं। आनुवंशिक कारक कोशिकीय परिवर्तनों जैसे समग्र विकास, शरीर और दिमाग के हिस्सों के अनुपात में होने वाले परिवर्तनों और दृष्टि एवं आहार संबंधी जरूरतों जैसे कार्य के पहलुओं की परिपक्वता के लिए जिम्मेदार होते हैं। क्योंकि जींस को "बंद" और "चालू" किया जा सकता है इसलिए समय समय पर व्यक्ति की प्रारंभिक जीनोटाइप के कार्य में परिवर्तन हो सकता है जिससे आगे चलकर विकासात्मक परिवर्तन में तेजी आ सकती है। विकास को प्रभावित करने वाले पर्यावरणीय कारकों में आहार एवं रोग जोखिम के साथ-साथ सामाजिक, भावनात्मक और संज्ञानात्मक अनुभव भी शामिल हो सकते हैं। हालाँकि, पर्यावरणीय कारकों की परीक्षा से यह भी पता चलता है कि युवा मनुष्य पर्यावरणीय अनुभवों की एक काफी व्यापक सीमा में भी जीवित रह सकते हैं।[15]

स्वतंत्र क्रियाविधि के रूप में काम करने के बजाय आनुवंशिक और पर्यावरणीय कारक अक्सर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं जिसकी वजह से विकासात्मक परिवर्तन होता है। बच्चे के विकास के कुछ पहलू उनकी नमनीयता (प्लास्टिसिटी) के लिए या उस हद तक उल्लेखनीय हैं जिस हद तक विकास की दिशा का मार्गदर्शन पर्यावरणीय कारकों द्वारा किया जाता है और साथ ही साथ आनुवंशिक कारकों द्वारा शुरू किया जाता है। उदाहरण के लिए, ऐसा लगता है कि एलर्जी संबंधी प्रतिक्रियाओं का विकास अपेक्षाकृत रूप से प्रारंभिक जीवन के कुछ पर्यावरणीय कारकों के जोखिम की वजह से होता है और प्रारंभिक जोखिम से सुरक्षा करने से बच्चे में परिवर्ती एलर्जिक प्रतिक्रिया के दिखाई देने की कम सम्भावना रह जाती है। जब विकास के किसी पहलू पर प्रारंभिक अनुभव का बहुत ज्यादा असर पड़ता है तो कहा जाता है कि इसमें बहुत ज्यादा नमनीयता (प्लास्टिसिटी) दिखाई देती है; जब आनुवंशिक स्वाभाव विकास का प्राथमिक कारक होता है तो कहा जाता है कि नमनीयता कम है।[16] नमनीयता में अंतर्जात कारकों जैसे हार्मोन के साथ-साथ बहिर्जात कारकों जैसे संक्रमण का मार्गदर्शन शामिल हो सकता है।

बुलबुले के साथ खेलता हुआ बच्चा

विकास के पर्यावरणीय मार्गदर्शन के एक किस्म का वर्णन अनुभव पर निर्भर नमनीयता के रूप में किया जाता है जिसमें पर्यावरण से सीखने के परिणामस्वरूप व्यवहार में बदलाव आता है। इस प्रकार नमनीयता जीवन भर हो सकती है और इसमें कुछ भावनात्मक प्रतिक्रियाओं सहित कई तरह के व्यवहार शामिल हो सकते हैं। एक दूसरे प्रकार की नमनीयता, अनुभव आशान्वित नमनीयता में विकास की सीमित संवेदनशील अवधियों के दौरान विशिष्ट अनुभवों का काफी प्रभाव शामिल होता है। उदाहरण के लिए, दो आंखों का समन्वित उपयोग और प्रत्येक आँख में प्रकाश द्वारा निर्मित द्विआयामी छवियों के बजाय एक एकल त्रिआयामी छवि का अनुभव जीवन के पहले वर्ष की दूसरी छमाही के दौरान दृष्टि के साथ अनुभवों पर निर्भर करता है। अनुभव-आशान्वित नमनीयता, आनुवंशिक कारकों के परिणामस्वरूप इष्टतम परिणामों को प्राप्त न कर पाने वाले विकास संबंधी पहलुओं को ठीक करने का काम करती है।[17]

विकास के कुछ पहलुओं में नमनीयता के अस्तित्व के अलावा, अनुवांशिक-पर्यावरणीय सहसंबंध व्यक्ति की परिपक्व विशेषताओं के निर्धारण में कई तरह से कार्य कर सकते हैं। आनुवंशिक-पर्यावरणीय सहसंबंध ऐसी परिस्थितियाँ हैं जिनमें आनुवंशिक कारकों से काफी हद तक कुछ अनुभव मिलने की संभावना रहती है। उदाहरण के लिए, निष्क्रिय आनुवंशिक-पर्यावरणीय सहसंबंध में, एक बच्चे को किसी विशेष पर्यावरण का अनुभव होने की संभावना होती है क्योंकि उसके माता-पिता का आनुवंशिक स्वाभाव उन्हें ऐसे किसी माहौल को चुनने या बनाने के लिए प्रेरित कर सकता है। विचारोत्तेजक आनुवंशिक-पर्यावरणीय सहसंबंध में बच्चे की आनुवंशिक रूप से विकसित विशेषताओं की वजह से दूसरे लोगों को कुछ खास तरीकों से जवाब देना पड़ता है जिससे उन्हें एक ऐसा अलग माहौल मिलता है जो कि आनुवंशिक रूप से अलग बच्चे को मिल सकता हो; उदाहरण के तौर पर, डाउन सिंड्रोम से ग्रस्त बच्चे का इलाज एक गैर-डाउन सिंड्रोम ग्रस्त बच्चे की तुलना में अधिक सुरक्षात्मक रूप से और कम चुनौतीपूर्ण ढंग से किया जा सकता है। अंत में, एक सक्रिय आनुवंशिक-पर्यावरणीय सहसंबंध एक ऐसा संबंध है जिसमें बच्चा उन अनुभवों को चुनता है जो बदले में उन पर प्रभाव डालता हो; उदाहरण के लिए, एक हृष्ट-पुष्ट सक्रिय बच्चा स्कूल के बाद के खेल अनुभवों को चुन सकता है जिससे वर्धित एथलेटिक कौशल का निर्माण होता है लेकिन शायद संगीत की शिक्षा में बाधा आ सकती है। इनमें से सभी मामलों में यह पता करना मुश्किल हो जाता है कि बच्चे की विशेषताओं का निर्माण आनुवंशिक कारकों या अनुभवों या दोनों के संयोग से हुआ था।[18]

शोध संबंधी मुद्दे और तरीके

[संपादित करें]

बच्चे के विकास की एक उपयोगी समझ को स्थापित करने के लिए विकासात्मक घटनाओं के बारे में व्यवस्थित पूछताछ की आवश्यकता है। विकास के विभिन्न पहलुओं में परिवर्तन की विभिन्न पद्धतियाँ और कारण शामिल हैं, इसलिए बच्चे के विकास को संक्षेप में प्रस्तुत करने का कोई सरल तरीका नहीं है। फिर भी, प्रत्येक विषय के बारे में कुछ सवालों के जवाब देने से विकासात्मक परिवर्तन के विभिन्न पहलुओं के बारे में तुलनीय जानकारी मिल सकती है। वाटर्स एवं उनके सहयोगियों ने इस उद्देश्य से निम्नलिखित सवालों का सुझाव दिया है।[19]

  1. क्या विकसित होता है? किसी निश्चित समयावधि में व्यक्ति के किन प्रासंगिक पहलुओं में परिवर्तन होता है?
  2. विकास दर और उसकी गति क्या है?
  3. विकास की कौन-कौन सी क्रियाविधि या प्रक्रियाएं हैं - अनुभव और आनुवंशिकता के कौन-कौन से पहलुओं की वजह से विकासात्मक परिवर्तन होता है?
  4. क्या प्रासंगिक विकासात्मक परिवर्तनों में कोई सामान्य व्यक्तिगत अंतर है?
  5. क्या विकास के इस पहलू में कोई जनसंख्या संबंधी अंतर हैं (उदाहरण के लिए, लड़कों और लड़कियों के विकास में अंतर)?

इन सवालों के जवाब देने के लिए किए जाने वाले अनुभवजन्य शोध में कई पद्धतियों का इस्तेमाल किया जा सकता है। शुरू में, पहले वर्ष में परिवर्ती प्रतिक्रियाओं में परिवर्तन जैसे विकासात्मक परिवर्तन के किसी पहलू के विस्तृत वर्णन एवं परिभाषा को विकसित करने के लिए प्राकृतिक परिस्थितियों में पर्यवेक्षणीय शोध की जरूरत पड़ सकती है। इस प्रकार के काम के बाद सहसंबंधी अध्ययन, कालानुक्रमिक आयु के बारे में जानकारी इकठ्ठा करना और शब्दावली विकास जैसे कुछ खास तरह के विकास को किया जा सकता है; परिवर्तन के बारे में बताने के लिए सहसंबंधी आंकड़ों का इस्तेमाल किया जा सकता है। इस तरह के अध्ययन अलग अलग उम्र में बच्चों की विशेषताओं की जांच करते हैं। इन तरीकों में अनुदैर्ध्य अध्ययन शामिल हो सकते हैं जिनमें बच्चों के एक समूह की कई बार फिर से जांच की जाती है जब वे बड़े होते हैं, या पार-अनुभागीय अध्ययन शामिल हो सकते हैं जिनमें अलग-अलग उम्र के बच्चों के समूहों की एक बार जांच की जाती है और एक दूसरे के साथ उनकी तुलना की जाती है, या इन तरीकों का एक संयोजन शामिल हो सकता है। बच्चे के विकास से संबंधित कुछ अध्ययनों में जरूरी तौर पर किसी गैर-यादृच्छिक डिजाइन में बच्चों के अलग-अलग समूहों की विशेषताओं की तुलना करके अनुभव या आनुवंशिकता के प्रभावों की जांच की जाती है। अन्य अध्ययनों में बच्चों के समूहों के लिए परिणामों की तुलना करने के लिए यादृच्छिक डिजाइनों का इस्तेमाल किया जा सकता है जिन्हें अलग-अलग हस्तक्षेप या शैक्षिक उपचार मिलता है।[15]

विकास के चरण

[संपादित करें]

माइलस्टोंस विशिष्ट शारीरिक और मानसिक क्षमताओं (जैसे चलने और समझने की भाषा) में होने वाले परिवर्तन हैं जो एक विकासात्मक अवधि के अंत और दूसरी विकासात्मक अवधि के आरम्भ को चिह्नित करते हैं। चरण सिद्धांतों के लिए माइलस्टोंस से चरण परिवर्तन का संकेत मिलता है। कई विकास कार्यों की पूर्णता के अध्ययनों ने विकासात्मक माइलस्टोंस के साथ जुड़े विशिष्ट कालानुक्रमिक आयु को स्थापित किया है। हालाँकि, सामान्य सीमा के भीतर विकासात्मक चक्रों वाले बच्चों के बीच भी माइलस्टोंस की प्राप्ति में काफी अंतर है। कुछ माइलस्टोंस दूसरे से अधिक परिवर्तनीय होते हैं; उदाहरण के लिए, ग्रहणशील भाषण संकेतकों से सामान्य रूप से सुनने वाले बच्चों में काफी भिन्नता का पता चलता है लेकिन अर्थपूर्ण भाषण माइलस्टोंस काफी परिवर्तनीय हो सकते हैं।

बच्चे के विकास से संबंधित एक आम चिंता विकासात्मक देरी है जिसमें महत्वपूर्ण विकासात्मक माइलस्टोंस के लिए एक आयु-विशिष्ट क्षमता में देरी शामिल है। विकासात्मक देरी की रोकथाम और उसमें आरंभिक हस्तक्षेप बच्चे के विकास के अध्ययन का महत्वपूर्ण विषय है। विकासात्मक देरी की पहचान किसी माइलस्टोन की विशिष्ट परिवर्तनीयता के साथ तुलना करके, न कि उपलब्धि में औसत आयु के संबंध में, करनी चाहिए। माइलस्टोन का एक उदाहरण आँख और हाथ का समन्वय हो सकता है जिसमें एक समन्वित तरीके से वस्तुओं में फेरबदल करने से संबंधित बच्चे की बढ़ती क्षमता शामिल है। आयु-विशिष्ट माइलस्टोनों (प्रमुख घटनाओं) के बढ़ते ज्ञान से माता-पिता और दूसरों को उचित विकास पर नजर रखने में आसानी होती है।

बच्चे के विकास के पहलू

[संपादित करें]

बच्चे का विकास का मुद्दा कोई एकाकी विषय नहीं है बल्कि यह कुछ हद तक व्यक्ति के विभिन्न पहलुओं के लिए अलग ढंग से प्रगति करता है। यहाँ कई शारीरिक और मानसिक विशेषताओं के विकास का वर्णन दिया गया है।

शारीरिक विकास

[संपादित करें]

क्या विकसित होता है?

[संपादित करें]

जन्म के बाद 15 से 20 वर्ष की आयु तक कद और वजन के क्षेत्र में शारीरिक विकास होता है; सही समय पर जन्म लेने के समय के औसत वजन 3.5 किलो और औसत लम्बाई 50 सेमी से बढ़ते-बढ़ते व्यक्ति अपने पूर्ण वयस्क आकार तक पहुँचता है। जैसे-जैसे कद और वजन बढ़ता जाता है वैसे-वैसे व्यक्ति के शारीरिक अनुपात भी बदलते हैं, नवजात शिशु का सिर अपेक्षाकृत बड़ा और धड़ तथा बाकी अंग छोटे होते हैं जो कि वयस्क होने पर अपेक्षाकृत रूप से छोटे सिर और लंबे धड़ तथा अंगों में परिणत हो जाता है।<refername="tanner">Tanner JM (1978). Fetus into Man. Cambridge MA: Harvard University Press. </ref> [20]

विकास की गति और पद्धति

[संपादित करें]

शारीरिक विकास की गति जन्म के बाद के महीनों में तेज होती है और उसके बाद धीमी पड़ जाती है इसलिए जन्म के समय का वजन पहले चार महीनों में दोगुना और 12 महीने की उम्र में तिगुना हो जाता है लेकिन 24 महीने तक चौगुना नहीं होता है। यौवन (लगभग 9 से 15 साल की उम्र के बीच) के थोड़ा पहले तक विकास धीमी गति से होता रहता है, उसके बाद विकास की गति काफी तीव्र हो जाती है। शरीर के सभी हिस्सों में होने वाली वृद्धि की दर और समय में एकरूपता नहीं होती है। जन्म के समय सिर का आकार पहले से ही लगभग एक वयस्क के सिर के आकार की तरह होता है लेकिन शरीर के निचले हिस्से वयस्क के निचले हिस्सों की तुलना में काफी छोटे होते हैं। उसके बाद विकास के क्रम में सिर धीरे-धीरे छोटा होता जाता है और धड़ और बाकी अंगों में तेजी से विकास होने लगता है।[20]

विकासात्मक परिवर्तन की क्रियाविधि

[संपादित करें]

वृद्धि दर के निर्धारण में और खास तौर पर आरंभिक मानव विकास की अनुपातिक विशेषता में होने वाले परिवर्तनों के निर्धारण में आनुवंशिक कारकों की एक मुख्य भूमिका होती है। हालाँकि आनुवंशिक कारकों की वजह से केवल तभी अधिकतम वृद्धि हो सकती है जब पर्यावरणीय परिस्थितियां अनुकूल हों. खराब पोषण और अक्सर चोट और बीमारी की वजह से व्यक्ति का वयस्क कद घट सकता है लेकिन बेहतरीन माहौल की वजह से कद में बहुत ज्यादा वृद्धि नहीं हो सकती है जितना कि आनुवंशिकता से निर्धारित होता हो। [20]

जनसंख्या अंतर

[संपादित करें]

वृद्धि के क्षेत्र में जनसंख्या अंतर काफी हद तक वयस्क के कद से संबंधित होते हैं। वयस्क अवस्था में काफी लंबे रहने वाले जातिगत समूहों के बच्चे छोटे वयस्क कद वाले समूहों की तुलना में जन्म के समय और बचपन के दौरान भी लंबे होते हैं। पुरुष भी कुछ हद तक लंबे होते हैं हालाँकि वयस्क अवस्था में मजबूत यौन द्विरूप्ता वाले जातिगत समूहों में यह अधिक स्पष्ट होता है। विशेषतया कुपोषण के शिकार लोग भी जीवन भर छोटे या नाटे रहते हैं। हालाँकि वृद्धि दर और पद्धति में जनसंख्या अंतर अधिक नहीं होता है, सिवाय इसके कि खराब पर्यावरणीय परिस्थितियां यौवन और संबंधित वृद्धि दर में देरी का कारण बन सकती हैं। स्पष्ट रूप से लड़कों और लड़कियों के यौवन की अलग-अलग आयु का मतलब है कि 11 या 12 साल के लड़के और लड़कियां परिपक्वता के मामले में काफी अलग-अलग स्तर पर होते हैं और शारीरिक आकार के मामले में सामान्य यौन अंतर के विपरीत स्तर पर हो सकते हैं।[20]

व्यक्तिगत अंतर

[संपादित करें]

बचपन में कद और वजन के मामले में काफी व्यक्तिगत अंतर होता है। इनमें से कुछ अंतरों की वजह पारिवारिक आनुवंशिक कारक और अन्य अंतरों की वजह पर्यावरणीय कारक हैं लेकिन विकास के क्रम में कहीं-कहीं प्रजनन परिपक्वता में व्यक्तिगत अंतरों का उन पर बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ता है।[20]

मोटर (परिचालन) विकास

[संपादित करें]

क्या विकसित होता है?

[संपादित करें]
चलना सीखता हुआ एक बच्चा

शारीरिक गतिविधि की क्षमताओं में बचपन के दौरान मोटे तौर पर युवा शिशु की परिवर्ती (अनजानी, अनैच्छिक) गतिविधि पद्धतियों से बचपन और किशोरावस्था की अति कुशल स्वैच्छिक गतिवधि विशेषता में परिवर्तन होता है। (बेशक, बड़े बच्चों और किशोर-किशोरियों में विकासशील स्वैच्छिक गतिविधि के अलावा कुछ परिवर्ती गतिविधियां भी अवश्य मौजूद रहती हैं।)[13]

विकास की गति और पद्धति

[संपादित करें]

मोटर विकास की गति प्रारंभिक जीवन में तेज होती है क्योंकि नवजात शिशु की परिवर्ती गतिविधियों में से कई पहले साल के भीतर बदल जाती हैं या गायब हो जाती हैं और बाद में यह गति धीमी पड़ जाती है। शारीरिक वृद्धि की तरह मोटर विकास से भी सेफालोकौडल (सिर से पांव तक) और प्रोक्सिमोडिस्टल (धड़ से अग्रांग तक) विकास की पूर्वानुमेय पद्धतियों का पता चलता है और शरीर के निचले हिस्से या हाथों और पैरों से पहले सिर के अंतिम सिरे और अधिक केन्द्रीय क्षेत्रों की गतिविधियों या हरकतों पर नियंत्रण स्थापित हो जाता है। गतिविधि के प्रकारों का विकास चरण जैसे क्रमों में होता है; उदाहरण के लिए, 6 से 8 महीनों की हरकत में दोनों हाथों और दोनों पैरों पर रेंगना और उसके बाद खड़े होनी की कोशिश करना, किसी चीज़ को पकड़ते समय उसके "चक्कर" लगाना, किसी वयस्क का हाथ पकड़कर चलना और अंत में स्वतंत्र रूप से चलना शामिल है। बड़े बच्चे अगल-बगल या पीछे-पीछे चलकर, तेजी से चलकर या दौड़कर, कूदकर, एक पैर से लांघकर और दूसरे पैर से चलकर और अंत में लांघकर इस क्रम को जारी रखते हैं। मध्य बचपन और किशोरावस्था तक एक पूर्वानुमेय क्रम के बजाय अनुदेश या पर्यवेक्षण के माध्यम से नए मोटर कौशलों की प्राप्ति होती है।[13]

मोटर विकास की क्रियाविधि

[संपादित करें]

मोटर विकास में शामिल क्रियाविधियों या प्रक्रियाओं में कुछ आनुवंशिक घटक शामिल होते हैं जो एक निर्दिष्ट आयु में शरीर के हिस्सों के शारीरिक आकार के साथ-साथ मांसपेशियों और हड्डियों की ताकत से जुड़े पहलुओं का भी निर्धारण करते हैं। पोषण और व्यायाम भी ताकत का निर्धारण करते हैं और इसलिए ये आसानी और सटीकता का भी निर्धारण होता है जिसके साथ शरीर के हिस्से को हिलाया-डुलाया जा सकता है। हरकत करने के अवसरों से शरीर के हिस्सों को झुकाने (धड़ की तरफ गति करने) और फैलाने की क्षमताओं की स्थापना में मदद मिलती है जिनमें से दोनों क्षमताएं अच्छी मोटर क्षमता के लिए जरूरी हैं। अभ्यास और सीखने के परिणामस्वरूप कुशल स्वैच्छिक गतिविधियों का विकास होता है।[13]

व्यक्तिगत अंतर

[संपादित करें]

सामान्य व्यक्ति की मोटर क्षमता सामान्य होती है और यह कुछ हद तक बच्चे के वजन और निर्माण पर निर्भर करती है। हालाँकि शैशव काल के बाद सामान्य व्यक्तिगत अंतरों पर अभ्यास, पर्यवेक्षण और विशिष्ट गतिविधियों के अनुदेश का बहुत ज्यादा असर पड़ता है। असामान्य मोटर विकास स्वलीनता या मस्तिष्क पक्षाघात जैसी समस्याओं या विकासात्मक विलम्ब का एक संकेत हो सकता है।[13]

जनसंख्या अंतर

[संपादित करें]

मोटर विकास के क्षेत्र में कुछ जनसंख्या अंतर भी देखने को मिलते हैं जिनके तहत लड़कियों को छोटी मांसपेशियों के इस्तेमाल से कुछ लाभ मिलता है जिनमें होठों और जीभ से ध्वनियों का उच्चारण भी शामिल है। नवजात शिशुओं की परिवर्ती गतिविधियों में जातीय अंतर होने की खबर मिली है जिससे यह पता चलता है कि कुछ जैविक कारक भी क्रियाशील हैं। सांस्कृतिक अंतर मोटर कौशल को सीखने में प्रोत्साहन दे सकते हैं जैसे स्वच्छता प्रयोजनों के लिए केवल बाएँ हाथ का इस्तेमाल करना और अन्य सभी कार्यों के लिए दाएँ हाथ का इस्तेमाल करना जिससे जनसंख्या अंतर का निर्माण होता है। अभ्यास वाली स्वैच्छिक गतिविधियों में सांस्कृतिक कारकों को भी क्रियाशील रूप में देखा जाता है जैसे फुटबॉल को आगे की तरफ ले जाने के लिए पैर का इस्तेमाल करना या बास्केटबॉल को आगे की तरफ ले जाने के लिए हाथ का इस्तेमाल करना। [13]

संज्ञानात्मक/बौद्धिक विकास

[संपादित करें]

क्या विकसित होता है?

[संपादित करें]

छोटे बच्चों में सीखने, याद रखने और जानकारी का प्रतीक बनाने और समस्याओं को हल करने की क्षमता सामान्य स्तर पर होती है जो संज्ञानात्मक कार्य कर सकते हैं जैसे चेतन और अचेतन प्राणियों में भेदभाव करना या कम संख्या वाली वस्तुओं की पहचान करना। बचपन में सीखने और जानकारी को संसाधित करने की गति बढ़ जाती है, स्मृति भी बढ़ती चली जाती है और संकेत उपयोग और संक्षेपण की क्षमता में तब तक विकास होता है जब तक किशोरावस्था लगभग वयस्क स्तर तक नहीं पहुँच जाती है।[13]

संज्ञानात्मक विकास की क्रियाविधि

[संपादित करें]

संज्ञानात्मक विकास में आनुवंशिक और अन्य जैविक क्रियाविधि होती हैं जैसे कि मानसिक मंदता के कई आनुवंशिक कारकों में देखा गया है। हालाँकि यह मान लेने के बावजूद कि मस्तिष्क कार्यों की वजह संज्ञानात्मक घटनाएँ होती हैं, विशिष्ट मस्तिष्क परिवर्तनों को मापना और यह दिखाना संभव नहीं है कि उनकी वजह से ही संज्ञानात्मक परिवर्तन होते हैं। अनुभूति के क्षेत्र में होने वाली विकासात्मक उन्नतियों का संबंध अनुभव और शिक्षण से भी होता है और यह मुख्य रूप से उच्च स्तरीय क्षमताओं का मामला है जैसे संक्षेपण जो काफी हद तक औपचारिक शिक्षा पर निर्भर करता है।[13]

व्यक्तिगत अंतर

[संपादित करें]

उन उम्रों में सामान्य व्यक्तिगत अंतर देखने को मिलते हैं जिन उम्रों में विशिष्ट संज्ञानात्मक क्षमताओं की प्राप्ति होती है लेकिन औद्योगिक देशों में बच्चों की स्कूली शिक्षा इस धारणा पर आधारित होती है कि ये अंतर बहुत बड़े नहीं हैं। संज्ञानात्मक विकास में असामान्य विलम्ब से उन संस्कृतियों के बच्चों के लिए समस्याएं पैदा हो सकती हैं जो काम के लिए और स्वतंत्र जीवनयापन के लिए उन्नत संज्ञानात्मक कौशलों की मांग करते हैं।[13]

जनसंख्या अंतर

[संपादित करें]

संज्ञानात्मक विकास के क्षेत्र में बहुत कम जनसंख्या अंतर देखने को मिलते हैं। लड़कों और लड़कियों के कौशल और वरीयताओं में कुछ अंतर देखने को मिलता है लेकिन समूहों में बहुत कुछ एक साथ होता है। ऐसा लगता है कि अलग-अलग जातीय समूहों की संज्ञानात्मक उपलब्धि में पाए जाने वाले अंतर सांस्कृतिक या अन्य पर्यावरणीय कारकों के परिणाम हैं।[13]

सामाजिक-भावनात्मक विकास

[संपादित करें]

क्या विकसित होता है?

[संपादित करें]

नवजात शिशुओं को संभवतः न तो डर का अनुभव नहीं होता है और न ही वे किसी व्यक्ति विशेष के साथ संपर्क स्थापित करने को वरीयता देते हैं। लगभग 8 से 12 महीनों तक उनमें काफी तेजी से परिवर्तन होता है और ज्ञात खतरों से भयभीत हो जाते हैं; वे परिचित लोगों को वरीयता भी देने लग जाते हैं और उनसे अलग होने पर या किसी अजनबी के सामने आने पर उनमें चिंता और दुःख के भाव नज़र आने लगते हैं। सहानुभूति और सामाजिक नियमों को समझने की क्षमता पूर्वस्कूली अवधि में शुरू हो जाती है और वयस्क काल में इनका विकास जारी रहता है। मध्य बचपन में हमउम्र बच्चों के साथ दोस्ती और किशोरावस्था में कामुकता से जुड़ी भावनाओं और रोमांटिक प्रेम की शुरुआत होती है। बाल्यकाल और आरंभिक प्रीस्कूली अवधि और किशोरावस्था के दौरान बहुत ज्यादा क्रोध का भाव रहता है।[13]

विकास की गति और पद्धति

[संपादित करें]

सामाजिक भावनात्मक विकास के कुछ पहलुओं, जैसे सहानुभूति, का विकास धीरे-धीरे होता है लेकिन अन्य पहलुओं, जैसे भय, में बच्चे की भावना के अनुभव का एक अपेक्षाकृत अचानक पुनर्गठन शामिल हो सकता है। यौन और रोमांटिक भावनाओं का विकास शारीरिक परिपक्वता के संबंध में होता है।[13]

सामाजिक और भावनात्मक विकास की क्रियाविधि

[संपादित करें]

ऐसा लगता है कि आनुवंशिक कारक पूर्वानुमेय आयु में होने वाले भय और परिचित लोगों के प्रति लगाव जैसे कुछ सामाजिक-भावनात्मक विकासों को नियंत्रित करते हैं। अनुभव इस बात को निर्धारित करने में एक मुख्य भूमिका निभाता है कि कौन-कौन से लोग परिचित हैं, किन-किन सामाजिक नियमों का पालन किया जाता है और किस तरह क्रोध व्यक्त किया जाता है।[13]

व्यक्तिगत अंतर

[संपादित करें]

सामाजिक-भावनात्मक विकास के क्रम में व्यक्तिगत अंतर का होना कोई आम बात नहीं है लेकिन एक सामान्य बच्चे से दूसरे सामान्य बच्चे की भावनाओं की तीव्रता या अभिव्यक्तित्व में बहुत ज्यादा अंतर हो सकता है। विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियात्मकताओं की व्यक्तिगत प्रवृत्तियां शायद स्वाभाविक होती हैं और उन्हें स्वाभावगत अंतर के रूप में सन्दर्भित किया जाता है। सामाजिक भावनात्मक विशेषताओं का असामान्य विकास थोड़ा अलग किस्म हो सकता है या इतना गंभीर हो सकता है कि इससे मानसिक बीमारी का संकेत मिलने लगे। [13] स्वभावगत लक्षणों को जीवन काल के दौरान स्थिर और टिकाऊ माना जाता है। उम्मीद है कि शैशवावस्था में सक्रिय और क्रोधित रहने वाले बच्चे बड़े बच्चों, किशोरों और वयस्कों के रूप में सक्रिय और क्रोधी हो सकते हैं।[उद्धरण चाहिए]

जनसंख्या अंतर

[संपादित करें]

बड़े बच्चों में जनसंख्या अंतर मौजूद हो सकता है, उदाहरण के तौर पर यदि उन्होंने यह सीखा है कि बच्चों द्वारा भावना की अभिव्यक्ति करना या लड़कियों की तुलना में अगल तरीके से व्यवहार करना उचित है, या अगर एक जातीय समूह के बच्चों द्वारा सीखे गए रीति-रिवाज किसी दूसरे बच्चे द्वारा सीखे गए रीति-रिवाज से अलग हैं। किसी निर्दिष्ट आयु के लड़कों और लड़कियों के बीच का सामाजिक और भावनात्मक अंतर दोनों लिंगों की यौवन विशेषताओं के समय के अंतर से भी जुड़ा हुआ हो सकता है।[13]

क्या विकसित होता है?

[संपादित करें]

बहुत ज्यादा बोली जाने वाली शब्दावली को हासिल करने के अलावा ऐसे चार मुख्य क्षेत्र हैं जिनमें बच्चे को बोली जाने वाली भाषा या बोली की परवाह किए बिना योग्यता हासिल करना जरूरी होता है। इन्हें ध्वनि विज्ञान या ध्वनि, अर्थ विज्ञान या कूटबद्ध अर्थ, वाक्य रचना या शब्दों को संयुक्त करने का तरीका और यथातथ्य या अलग-अलग परिस्थितियों में भाषा का इस्तेमाल करने के ज्ञान के रूप में सन्दर्भित किया जाता है।[3]

विकास की गति और पद्धति

[संपादित करें]

ग्रहणशील भाषा (दूसरों की बात की समझ) में क्रमिक विकास होता है जिसकी शुरुआत लगभग 6 महीने की आयु में होती है। हालाँकि भाववाहक भाषा और शब्दों के निर्माण में, लगभग एक साल की उम्र में इसकी शुरुआत के बाद से काफी तेजी आ जाती है और साथ में दूसरे साल के बीच में द्रुत शब्द अधिग्रहण का एक "शब्दावली विस्फोट" सा होने लगता है। यह शब्दावली विस्तार बोले गए शब्दों को दोहराने की क्षमता से काफी करीब से जुड़ा हुआ है और उनके उच्चारण में कौशल के तीव्र अधिग्रहण को सक्षम बनाता है।[21][22] व्याकरणिक नियम और शब्द संयोजन लगभग दो साल की उम्र में दिखाई देते हैं। शब्दावली और व्याकरण की महारत पूर्वस्कूली और स्कूल के वर्षों के माध्यम से धीरे-धीरे जारी रहती है। किशोर-किशोरियों के पास अभी भी वयस्कों की तुलना में कम शब्दसंग्रह होते हैं और पैसिव वॉइस जैसी संरचनाओं के साथ अधिक कठिनाई का अनुभव होता है।

एक महीने की उम्र वाले बच्चे "ऊह" ध्वनियों का उच्चारण कर सकते हैं जो शायद किसी आपसी "बातचीत" में देखरेख करने वालों के साथ सुखद बातचीत से उत्पन्न होता है। स्टर्न के मुताबिक, यह प्रक्रिया किसी आपसी, लयबद्ध बातचीत में वयस्क और शिशु के बीच के प्रभाव का संचार है। परवर्ती बातचीत के लेनदेन की आशा से सुरसमायोजन और "गेज़-कपलिंग" पर विचार किया जाता है जिनमें शिशु और वयस्क की अलग-अलग भूमिका होती है।[23]

लगभग 6 से 9 महीने के बच्चे और अधिक स्वर वर्णों और कुछ व्यंजन वर्णों का उच्चारण करने लगते हैं और "शब्दनुकरण" करने लगते हैं या "दादादादा" जैसी ध्वनियों को अक्सर दोहराते रहते हैं जिसमें परवर्ती बोली की कुछ ध्वन्यात्मक विशेषताओं की मौजूदगी का पता चलता है। ऐसा माना जाता है कि बोली के विकास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा वह समय है जिसे देखरेख करने वाले यह "अनुमान" लगाने में बिताते हैं कि उनका शिशु क्या कहने की कोशिश कर रहा है और इस प्रकार बच्चे को उसके सामाजिक जगत के साथ एकीकृत किया जाता है। शिशुर के उच्चारणों में वैचारिकता के संबंध को "साझा स्मृति" कहा जाता है और यह एक तात्कालिक रूप में कार्यों, इरादों और प्रतिक्रियास्वरूप कार्यों की एक जटिल श्रृंखला का निर्माण करता है।[3]

यह तर्क दिया गया है कि बच्चों की स्वर प्रणालियों का विकास इस तरह होता है कि ये वयस्क की भाषाओँ के समानान्तर होती हैं भले ही वे न पहचानने योग्य "शब्दों" का इस्तेमाल कर रहे हों.[24] पहले शब्दों में नामकरण या लेबलिंग का कार्य होता है लेकिन इसका अर्थ भी होता है जैसे "दूध" जिसका मतलब है कि "मुझे दूध चाहिए". आम तौर पर 18 महीने की उम्र में लगभग 20 शब्दों की शब्दावली बढ़कर 21 महीने की उम्र में 200 शब्दों के आसपास हो जाती है। लगभग 18 महीने की उम्र से बच्चा दो शब्द वाले वाक्यों में शब्दों को संयुक्त करना शुरू कर देता है। आम तौर पर वयस्क इसका विस्तार, अर्थ को स्पष्ट करने के लिए करता है। 24-27 महीने की उम्र तक बच्चा एकदम से सटीक न होने पर भी तार्किक वाक्य रचना का इस्तेमाल करके तीन या चार शब्दों वाले वाक्यों का निर्माण करने लगता है। इसके पीछे सिद्धांत यह है कि बच्चे नियमों के एक बुनियादी समूह का इस्तेमाल करते हैं जैसे बहुवचन शब्दों के लिए 's' जोड़ना या बहुत ज्यादा कठिन शब्दों से सरल शब्दों का निर्माण करना जैसे चॉकलेट बिस्किट के लिए "चॉस्किट" का इस्तेमाल करना। इसके बाद व्याकरण के नियमों और वाक्यों के सही क्रम में तेजी से विकास होने लगता है। अक्सर तुकबंदी में रुचि होने लगती है और कल्पनात्मक नाटक में अक्सर बातचीत को शामिल किया जाता है।[3] बच्चों के रिकॉर्ड किए गए मोनोलॉग अर्थपूर्ण इकाइयों में जानकारी को संगठित करने की प्रक्रिया के विकास में अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं।[25]

तीन साल की उम्र तक बच्चा रिलेटिव क्लॉज़ सहित जटिल वाक्यों का इस्तेमाल करने लगता है हालाँकि अभी भी विभिन्न भाषाई प्रणालियों में सुधार कार्य जारी रहता है। पांच साल की उम्र तक बच्चा काफी हद तक वयस्क की तरह भाषा का इस्तेमाल करने लग जाता है।[3] लगभग तीन साल की उम्र से बच्चे भाषा विज्ञान की दृष्टि से भ्रम या कल्पना का संकेत कर सकते हैं, आरम्भ और अंत के साथ सुसंगत व्यक्तिगत कहानियों और काल्पनिक कथाओं का निर्माण कर सकते हैं।[3] यह तर्क दिया जाता है कि बच्चे अपने स्वयं के अनुभव को समझने के एक तरीके के रूप में और दूसरों को अपना मतलब समझाने के एक माध्यम के रूप में कहानी का सहारा लेते हैं।[26] विस्तारित बहस में शामिल होने की क्षमता समय के साथ वयस्कों और साथियों के साथ नियमित बातचीत से उत्पन्न होती है। इसके लिए बच्चे को अपने दृष्टिकोण को दूसरों के दृष्टिकोणों और बाहरी घटनाओं के साथ मिलाने के तरीके को सीखने की जरूरत है और वह ऐसा कर रहा है, यह साबित करने के लिए उसे भाषाई संकेतकों का इस्तेमाल करने का तरीका भी सीखने की जरूरत है। वे किससे बात कर रहे हैं, इसके आधार पर वे अपनी भाषा को समायोजित करना भी सीखते हैं। आम तौर पर लगभग 9 साल की उम्र तक अपने खुद के अनुभवों के अलावा अन्य कहानियों का वर्णन लेखक, कहानी के पात्रों और अपने खुद के के दृष्टिकोणों से कर सकता है।[27]

भाषा के विकास की क्रियाविधि

[संपादित करें]

बच्चे के सीखने के कार्य को सहज बनाने में वयस्क वार्तालाप की महत्वपूर्ण भूमिका होने के बावजूद सिद्धांतकारों में इस बात को लेकर काफी असहमति है कि बच्चों के आरंभिक अर्थ और अर्थपूर्ण शब्द, बच्चे के संज्ञानात्मक कार्यों से संबंधित आंतरिक कारकों की तुलना में किस हद तक सीधे वयस्क वार्तालाप से उत्पन्न होते हैं। नए शब्दों के प्रारंभिक मानचित्रण, प्रसंग से परे शब्दों को समझने की क्षमता और अर्थ को परिष्कृत करने के बारे में कई अलग-अलग निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं।[3] एक परिकल्पना को वाक्यात्मक बूटस्ट्रैपिंग परिकल्पना के नाम से जाना जाता है, जो वाक्य संरचना से मिली व्याकरण संबंधी जानकारी का इस्तेमाल करके इशारे से अर्थ का अनुमान लगाने की बच्चे की क्षमता को सन्दर्भित करती है।[28] एक अन्य परिकल्पना बहुत-मार्गी मॉडल है जिसमें यह तर्क दिया जाता है कि प्रसंग से बंधे शब्द और सन्दर्भ संबंध शब्द अलग-अलग मार्गों का अनुसरण करते हैं; पहले वाले को घटना प्रदर्शनों के आधार पर चित्रित किया जाता है और बाद वाले को मानसिक प्रदर्शनों के आधार पर चित्रित किया जाता है। इस मॉडल में पैतृक इनपुट की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होने के बावजूद बच्चे शब्दों के परवर्ती उपयोग को निर्धारित करने के लिए संज्ञानात्मक प्रक्रिया पर निर्भर करते हैं।[29] बहरहाल, भाषा विकास पर किए गए प्राकृतिक शोध से यह संकेत मिला है कि प्रीस्कूली बच्चों के शब्द संग्रह वयस्कों द्वारा उन्हें बताए गए शब्दों की संख्या से काफी हद तक जुड़े हैं।[30].

अभी तक भाषा अधिग्रहण का कोई सिद्धांत ऐसा नहीं है जो सबके द्वारा स्वीकृत हो। जोर देने के मामले में वर्तमान स्पष्टीकरणों में अंतर है, जहाँ शिक्षण सिद्धांत में सुदृढ़ीकरण और अनुकरण (स्किनर) पर जोर दिया जाता है वहीं जैविक और स्वदेशवादी सिद्धांतों में सहज अन्तर्निहित क्रियाविधियों (चोम्स्की और पिंकर) पर और एक सामाजिक प्रसंग (पियाजेट और टोमासेलो) के भीतर अधिक पारस्परिक दृष्टिकोण पर जोर दिया जाता है।[3] व्यवहारवादियों का तर्क है कि भौतिक माहौल और आम तौर पर सामाजिक माहौल की सार्वभौमिक मौजूदगी के आधार पर भाषा संबंधी किसी भी सिद्धांत में भाषा व्यवहार के व्यक्तिगत विकास पर इनके संज्ञानात्मक संबंधों के प्रभावों पर जरूर ध्यान देना चाहिए। [31][32][33] पिंकर का तर्क है कि जटिल भाषा सार्वभौमिक है और इसका एक सहज आधार होता है। पिंकर का तर्क कुछ हद तक पिजिन (मिश्रित भाषा) से क्रियोल (व्युत्पन्न) भाषाओँ के विकास पर आधारित है। पिजिन (मिश्रित भाषा) में व्याकरणिक संरचनाओं के बिना बात चीत करने वाले माता-पिता के बच्चों में अपने आप क्रियोल (व्युत्पन्न) भाषा का विकास हो जाता है जो मानकीकृत शब्द क्रमों और वर्तमान, भविष्य और भूतकाल के मार्करों और सबऑर्डिनेट क्लॉज से परिपूर्ण होते हैं।[34] निकारागुआ में विशेष स्कूलों में कम उम्र के बधिर बच्चों की संकेत भाषा के विकास से इसको कुछ समर्थन मिला है, जिनमें अनायास ही पिजिन का विकास हो गया और जिसे बाद में स्कूलों (आईएसएन) में आने वाले बच्चों की युवा पीढ़ी द्वारा एक क्रियोल के रूप में विकसित कर दिया गया।[35][36].

व्यक्तिगत अंतर

[संपादित करें]

धीमा अभिव्यंजक भाषा विकास (सेल्ड या एसईएलडी) जो कि सामान्य समझ के साथ शब्दों के इस्तेमाल में होने वाली एक देरी है, बच्चों के एक छोटे अनुपात की विशेषता है जो बाद में सामान्य भाषा उपयोग का प्रदर्शन करते हैं।

डिस्लेक्सिया बच्चे के विकास का एक महत्वपूर्ण विषय है क्योंकि लगभग 5% जनसंख्या (पश्चिमी जगत में) पर इसका असर पड़ता है। मूलतः यह एक विकार है जिसकी वजह से बच्चे अपनी बौद्धिक क्षमताओं के अनुरूप पढ़ने, लिखने और वर्तनी या उच्चारण करने का भाषा कौशल प्राप्त करने में विफल हो जाते हैं। डिस्लेक्सिया ग्रस्त बच्चों के भाषा विकास में सूक्ष्म भाषण दुर्बलता से लेकर गलत उच्चारण और शब्द ढूँढने में मुश्किलों तक, काफी अंतर दिखाई देता है। सबसे आम ध्वनी कठिनाइयाँ, मौखिक अल्पकालिक स्मृति और ध्वनि जागरूकता की सीमितताएँ हैं। ऐसे बच्चों को अक्सर वर्ष के महीनों के नाम, पहाड़ा सीखने जैसे दीर्घकालिक मौखिक शिक्षण के साथ कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है; इसको समझाने के लिए मुख्यतः 1980 के दशक के अंतिम दौर की ध्वनि अभाव परिकल्पना (फोनोलॉजिकल डेफिसिट हाइपोथीसिस) का इस्तेमाल किया जाता है। प्रारंभिक जोड़बंदी, बुनियादी ध्वनि कौशल और बुनियादी बिल्डिंग ब्लॉकों की प्राप्ति में कठिनाइयों का मतलब है कि डिस्लेक्सिया ग्रस्त बच्चों को नई जानकारी या कौशल हासिल करने के बजाय केवल बुनियादी चीजों का सामना करने में बहुत ज्यादा संसाधनों का निवेश करना पड़ता है। प्रारंभिक पहचान से बच्चे विफल होने से पहले सहायता प्राप्त करने में सक्षम हो जाते हैं।[3]

भाषा विकास में असामान्य देरी ऑटिज्म (स्वलीनता) का लक्षण हो सकती है और भाषा के प्रतिगमन से रेट सिंड्रोम जैसी गंभीर अक्षमताओं का संकेत मिल सकता है। खराब भाषा विकास के साथ सामान्य विकास में भी विलंब हो सकता है, जैसा कि डाउन सिंड्रोम में देखने को मिलता है।

इन्हें भी देखें

[संपादित करें]
 
  • विकासात्मक साइकोपेथोलॉजी (सामान्य मनोविज्ञान)
  • थीमैटिक कोहेरेंस (विषयगत संबद्धता)
  • शुरुआती बचपन की शिक्षा
  • विकासवादी विकासात्मक मनोविज्ञान
  • स्वस्थ आत्मकामिका (नार्सिसिज़्म)
  • सामूहिकता (मनोगतिकी)
  • न्यूरोडेवलपमेंटल विकार
  • अध्यापन-कला
  • खेल (गतिविधि)

सन्दर्भ

[संपादित करें]
  1. Kail RE (2006). Children and Their Development (4 सं॰). Prentice Hall. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0131949119. 
  2. ब्रोनफेनब्रेनर, यू (1979). दी इकोलॉजी ऑफ ह्यूमन डेवलपमेंट: एक्सपेरिमेंट्स बाय नेचर एंड डिजाइन . केम्ब्रिज, एमए: हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस. (आईएसबीएन 0-674-22457-4)
  3. Smith PK, Cowie H and Blades M, Understanding Children's Development, Basic psychology (4 संस्करण), Oxford, England: Blackwell
  4. Mind in Society: The development of higher psychological processes (Translation by Michael Cole). Cambridge, MA: Harvard University Press. 1978 (Published originally in Russian in 1930). 
  5. Thought and Language. Cambridge, MA: MIT Press. 1962. 
  6. Cultural, Communication, and Cognition: Vygotskian Perspectives. Cambridge University Press. 1985. 
  7. वाटसन, जे.बी. (1926). वॉट दी नर्सरी हैज टू से अबाउट इन्स्टिंगक्ट. इन सी. मार्किसन (एड्स.) साइकोलॉजी ऑफ 1925. वोर्चेस्टर, एमए: क्लार्क विश्वविद्यालय प्रेस.
  8. व्हाइट, एस.एच. (1968). दी लर्निंग मैच्योरेशन कंट्रोवर्सी: हॉल टू हल. मेरिल-पाल्मर क्वाटर्ली, 14, 187-196.
  9. Lemma A (2007), "Psychodynamic Therapy: The Freudian Approach", प्रकाशित Dryden W (संपा॰), Handbook of Individual Therapy (5 संस्करण), Sage publications
  10. एस्लिन, आर. (1993). "कमेंट्री: दी स्ट्रेंज एट्रेक्टिवनेस ऑफ डायनामिक सिस्टम्स टू डेवलपमेंट." इन एल. स्मिथ, ई. थेलेन (एड्स.), ए डायनामिक सिस्टम्स एप्रोच: एप्लीकेशंस. केम्ब्रिज, एमए: एमआईटी प्रेस.
  11. समेरोफ़, ए. (1983). "फेक्टर्स इन प्रीडिक्टिंग सक्सेसफुल पैरेंटिंग." इन सास्सेरथ, वी. (एड.), मिनमाइजिंग हाई-रिस्क पैरेंटिंग. स्किलमन, एनजे: जॉनसन एंड जॉनसन.
  12. बेर्क, लौरा ई. (2009). चाईल्ड डेवलपमेंट . 8th एड. संयुक्त राज्य अमेरिका: पियर्सन एजुकेशन, इंक.
  13. Patterson C (2008), Child Development, New york: McGraw-Hill
  14. Erikson E (1968). Identity, Youth, and Crisis. New York: Norton. 
  15. Mercer J (1998). Infant Development: A Multidisciplinary Introduction. Pacific Grove, CA: Brooks/Cole. 
  16. Buchwald J (1987), "A comparison of plasticity in sensory and cognitive processing systems", प्रकाशित Gunzenhauser N (संपा॰), Infant Stimulation, Skillman NJ: Johnson & Johnson
  17. Greenough W, Black J and Wallace C (1993), "Experience and brain development", प्रकाशित Johnson M (संपा॰), Brain Development and Cognition, Oxford: Blackwell, पपृ॰ 319–322
  18. Berk L (2005). Infants, Children, and Adolescents. Boston: Allyn & Bacons. 
  19. Waters E, Kondo-Ikemura K, Posada G and Richters J (1991), "Learning to Love: Mechanisms and Milestones", प्रकाशित Gunnar M and Sroufe L (संपा॰), Minnesota Symposia on Child psychology, 23, Self-Processes and Development, Hillsdale, NJ: Erlbaum, पपृ॰ 217–255सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  20. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; tanner नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  21. मसूर एफई. (1995). इन्फेन्ट्स' अर्ली वर्बल इमिटेशन एंड देयर लेटर लेक्सिकल डेवलपमेंट. मेरिल-पाल्मर क्वाटर्ली, 41, 286-306.OCLC 89395784
  22. गथेर्कोले एसई. (2006).[1] Archived 2011-06-05 at the वेबैक मशीननॉन वर्ड रिपिटीशन एंड वर्ड लर्निंग: दी नेचुरल ऑफ दी रिलेशनशिप. Archived 2011-06-05 at the वेबैक मशीन एप्लाइड साइकोलिंग्विस्टिक्स 27: 513-543.doi:10.1017.S0142716406060383
  23. Stern DN (1990), Diary of a Baby, Harmondsworth: Penguin
  24. Ingram D (1999), "Phonological acquisition", प्रकाशित Barrett M (संपा॰), The Development of Language, London: Psychology Press, पपृ॰ 73–97
  25. Bruner JS and Lucariello J, "Monologue as narrative recreation of the world", प्रकाशित Nelson K (संपा॰), Narratives from the Crib, Cambridge MA: Harvard University press
  26. Bruner JS (1990). Acts of Meaning. Cambridge MA: Harvard University Press. 
  27. Pan B and Snow C (1999), "The development of conversational and discourse skills", प्रकाशित Barrett M (संपा॰), The Development of Language, London: Psychology Press, पपृ॰ 229–50
  28. Gleitman LR (1990), "The structural sources of verb meaning", Language Acquisition, 1: 3–55, आइ॰एस॰एस॰एन॰ 1048-9223, डीओआइ:10.1207/s15327817la0101_2.
  29. Barrett MD, Harris M and Chasan J (1991), "Early lexical development and maternal speech: a comparison of children's initial and subsequent uses of words", Journal of Child Language, 18 (1): 21–40, PMID 2010501, डीओआइ:10.1017/S0305000900013271.
  30. Hart B and Risley T (1995). Meaningful differences in the everyday experience of young American children. Baltimore: P.H. Brookes. 
  31. Moerk E (1996). "Input and learning processes in first language acquisition". Advances in Child Development and Behavior. 26: 181–229. डीओआइ:10.1016/S0065-2407(08)60509-1.
  32. Moerk EL (1986), "Environmental factors in early language acquisition", प्रकाशित Whitehurst GJ (संपा॰), Annals of child development, 3, Greenwich: CTJAI press
  33. Moerk EL (1989). "The LAD was a lady and the tasks were ill defined". Developmental Review. 9: 21–57. डीओआइ:10.1016/0273-2297(89)90022-1.
  34. Pinker S (1994). The Language Instinct. London: Allen Lane. 
  35. Kegl J, Senghas A and Coppola M (1999), "Creation through construct: Sign language emergence and sign language change in Nicaragua", प्रकाशित DeGrafs M (संपा॰), Language Creation and Language Change: Creolization, Diachrony and Development, Cambridge, MA: MIT Press
  36. Morford JP and Kegl J (2000), "Gestural precursors to linguistic constructs: how input shapes the form of language", प्रकाशित McNeill D (संपा॰), Language and Gesture, Cambridge: Cambridge University Press

अग्रिम पठन

[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ

[संपादित करें]